गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

मायावती की सरकार में बड़ा अत्याचार है !

माँ-बहन की गाली सुनकर आमतौर पर आंखें तरेरने वाले लोग शादी-विवाह के मौके पर एक से बढ़कर एक गालियाँ सुनकर भी सिर्फ दांत दिखाकर कम चला लेते हैं. मैं नहीं समझता की उनके पास इसके अलावा और कोई दूसरा चारा भी होता होगा. कुछ दिन पहले मुझे भी अपने मामा की बिटिया की शादी में कुछ ऐसा ही करना पड़ा. वहां तिलक के मौके पर लड़के वालो के पक्ष से महिलाएं ऐसी गालियाँ दे रहीं थी की कोई भी सभ्य पुरुष अपने कानो को बाद कर ले. न जाने गालियाँ देने की इस प्रथा को किसने शुरू किया होगा. उस दिन घर की महिलाएं किसी को बक्श दें ऐसा संभव ही नहीं हैं. गालियाँ अगर मीठी जुबान में मिलें तो उसकी बात और ही है. बलिया में भोजपुरी भाषा बोली जाती है और इसी भाषा में मिल रही गालियाँ किसी बंगाली मीठाई से कम नहीं थी.


जब हम लोग लड़के वालों के आंगन में खाना खा रहे थे तो खाने का आनंद गालियों के साथ कुछ और ही था. इस बीच किसी महिला ने तान छेड़ा की मायावती की सरकार में बड़ा अत्याचार है अब गली-गली घुमे मुहनोच्वा हाय सियाराम जी  कहीं. यह गाली सुनकर तो मेरे मुंह का निवाला अन्दर ही नहीं गया और जो हाथ में खाने का कँवर था वो भी हाथ में ही रह गया. मेरी समझ में नहीं आया की इन महिलाओं को ससुरा, साला, भडुआ आदि कहतें-कहतें आखिर मायावती क्यों याद आ गयीं.
काफी research के बाद मेरे ख्याल में आया की नेता का नाम आजकल एक गाली हो गयी है और उन्होंने इसीलियें ऐसा किया होगा.


नोट--- अभी-अभी अपने गृह जनपद बलिया से लौटा हूँ इसलियें लिखने के लिए काफी कुछ है. आगे के अंक में कुछ और मजेदार चीजें होंगी.

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

रवीश जी से रेकुएस्ट है लापतागंज देखकर कुछ लिखें


अगर किसी को यह नहीं पता है की सब टीवी पर सोमवार से गुरुवार रात १० बजे लापतागंज आता है तो सभी से आग्रह है की यह सीरियल जरूर देखें. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ की यह दूरदर्शन के पुराने दिनों की याद दिला देगा जब हास्य व्यंग्य से भरपूर धारावाहिक एक सन्देश छोड़ कर जाते थे. यह सन्देश ऐसे होते थे जो अंतर्मन को गुदगुदाने के साथ अंतरात्मा को छकझोर देते थे. कुछ ऐसा ही अंदाज़ है लापतागंज का. सीरियल भी शरद जोशी की कहानियों पर आधारित है तो इसकी खूबियों का पता लगाया जा सकता है.
मैंने अब तक इसके चार एपिसोड देखे हैं. एपिसोड के title है लापतागंज में महापुरुष, लापतागंज में शादी, इल्लिया और नेताजी शर्मिंदा हैं. पहले एपिसोड मे मैंने सीखा की महापुरुष बनने के लियें जरूरी नहीं की कोई खास योग्यता रखनी पड़े. शादी में खर्चा है तभी तो चर्चा है जैसे सामाजिक तंज का मजा लापतागंज में शादी वाले एपिसोड में देखने को मिला. अगर मुकुन्दी बाबु की मेहरारू को शर्मिंदा नेता देखने में आनंद मिला तो मैं भी शर्मिन्दा नेता देखकर खुद शर्मिन्दा होने से नहीं बच पाया. खेतों में इल्लिया हैं तभी तो दिल्ली में बिल्लियाँ हैं जैसी चीज़ भी अन्दर से गुदगुदा गयीं और न्यूज़ चैनेलो से लेकर नेता जी के किसान के प्रति रवैये को समझा कर चली गयी. यह कुछ ऐसी खूबियाँ हैं जो बरबस ही मुझे इस सीरियल की तरफ खिचती हैं.
मेरी सब वालो से एक और रेकुएस्ट है की इस कार्यक्रम की timing change करें क्योंकि इस समय पर ndtv इंडिया पर रवीश कुमार भी न्यूज़ पॉइंट में आ रहे होते हैं जिनके तंज भी काफी रोचक होतें हैं. एक रेकुएस्ट रवीश जी से भी है की वो भी लापतागंज देखे और अपने ब्लॉग में लिखें.

शनिवार, 21 नवंबर 2009

क्या पत्रकारिता loudspeaker हो गयी है ?

"पंकज जी राष्ट्रीय छात्र संगठन का जिला अध्यक्ष बनने पर सभी लोग मुझे बधाई दे रहे हैं, पर न जाने मेरे घर वालों को क्या हो गया है, जो यह कहकर मेरा अपमान कर रहे हैं की मैंने गलत राश्ता चुन लिया है और मेरा जीवन तबाह हो गया है. वे कहते हैं की दिल्ली क्या हमने तुम्हें नेता बनने के लिए भेजा था. पंकज जी उनकी बातें सुनकर मुझे समझ में नहीं आता की आखिर मैंने अपराध क्या किया है. क्या हम जैसे लोगो को नेता नहीं बनना चाहियें. क्या किसी राजनीतिक दल में शामिल होकर समाज सेवा को अपना करियर बनाना गलत है. पंकज जी मैं चाहता हूँ की जो कुछ भी मैंने दिल्ली या अन्य जगह से हासिल किया है उसे पुरनिया (bihar) के लोगो में बांटू. पंकज जी आखिर मैं बड़ा पत्रकार होकर भी क्या करता आखिर मुझे वही लोगो को बतलाना पड़ता जो एक आंठवी पास नेता बयाँ देता. मैं राज ठाकरे की बकबक सुनकर आखिर जनता को क्यों बताऊ की उसने बिहारियो के बारे में क्या कहा है. मैं अपने विचार खुद व्यक्त करना चाहता हूँ और loudspeaker थामना चाहता हूँ न की ऐसा loudspeaker बनना चाहता हूँ जिस पर कोई भी बस बयाँ दे कर चलता बने. पंकज जी ऐसा काम दीपक चौरसिया भी कर रहे हैं, मैं ऐसा नहीं करना चाहता मुझे माफ़ कीजियेगा क्योंकि आप भी मीडिया वाले ही हैं." कुनाल कुमार, पुरनिया, बिहार




यह व्यथा मेरे उस मित्र ने फ़ोन पर व्यक्त की है जो कभी पत्रकारिता की क्लास में बिहार की बुराई करने पर पूरी कक्षा में खड़ा होकर विरोध करता था. उसकी तब और अबकी खासियत है की वह खाता भी राजनीती में है और सोता भी राजनीती में है यानि की इतना राजनीतिक है की इसके अलावा कोई और चीज उसके लिए मिटटी के बराबर है. कुनाल ने मेरे साथ ही पत्रकारिता की पढाई की है और थोड़े दिन उसने मीडिया को अपनी सेवाई भी दीं उसके बाद उसने अपनी रूची के मुताबिक राजनीती को अपना लिया.

कुनाल की सारी बातें सुनने के बाद ऐसा महसूस हुआ की यही सबसे बड़ा कारण है जो अच्छे लोग राजनीती में नहीं आतें. एक माँ-बाप अपने बेटे या बिटिया को डॉक्टर, इंजिनियर और मेनेजर बनाने के सपने तो देखतें है वे इस बात पर भी अफ़सोस व्यक्त कर लेतें है की अच्छे राजनेता अब देश में नहीं रहे, लेकिन जब बात आती है की अपने पढ़े लिखे बेटे को राजनीती में जाने दें तो वे सबसे पहले आपत्ति व्यक्त करतें हैं. यह माँ-बाप के नाखुशी का ही नतीजा है की राजनीती में बदमाशों और कम पढ़े लिखे लोग आ रहे हैं.

पत्रकारिता को louspeker कहने पर मैं अपने दोस्त की तरफ से माफ़ी चाहता हूँ क्योंकि वो जिस भावना में बात कर रहा था उसमें ये बातें जायज हैं.

बुधवार, 4 नवंबर 2009

प्रेम, प्रेमी और माँ-बाप फैसला आप का !



हम आये दिन प्रेम और प्रेम विवाह जैसी खबरों से न्यूज़ चैनल और अखबारों के माध्यम से रूबरू होते हैं. खबरों के माध्यम से जो प्रेम कहानियाँ दिखाई जाती है, उसमे हमेशा प्रेमी जोड़े को हीरो और उनके परिजनों को विलेन दिखाया जाता है, ठीक उन तमाम हिट और फ्लॉप हिंदी फिल्मों की तरह जिसमे विलेन इतना क्रूर होता है की वह जुल्मो की हद पर कर देता है. लेकिन यहाँ तो विलेन उन्हें बनाया जाता है जिन्होंने न जाने कितनी परेशानियों से जूझते हुए अपमी औलाद को पाल पोसकर बड़ा किया होता है. प्रेम विवाह करने के बाद भले ही लड़के और लड़की को सबसे ज्यादा खुशी मिले लेकिन उन माँ बाप का क्या जो जीवन भर समाज के तानो से अपना पीछा मरने के बाद ही छुड़ा पते हैं. इन्ही माँ बाप को हम विलेन की तरह दिखाते हैं और यह साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते की ये प्यार के सबसे बड़े दुश्मन हैं. मेरा सवाल है की यह कैसे हो सकता है की जो माँ-बाप अपने बच्चो के जीवन को बनाने के लिए अपने दिन का चैन और रात की नींद खो दे वही एक दिन उनके दुश्मन कैसे बन जातें हैं? क्या उनको सिर्फ इसलिए विलेन बनाना ठीक है की वे अपने बच्चो के प्रेम-विवाह से नाखुश हैं?

हमारे समाज में सभी माँ-बाप अपने बच्चों से कुछ उम्मीदें रखतें हैं. उनकी यह भी उम्मीद होती है की उनका बेटा या बेटी एक दिन ऐसा काम करेंगे जिससे उनका सर समाज में ऊँचा होगा. लेकिन जब उनका बेटा या बेटी सारी सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर अपनी मर्जी से शादी कर लेता है तो वही सर किसी के आगे बड़ी ही बेशर्मी के साथ खड़ा हो पता है. उनको सबसे ज्यादा डर हमारे समाज से होता है जो जीवन भर उन्हें ताने मारकर तील-तील मरने पर मजबूर कर देता है. यह स्थिति तब और ज्यादा भयानक रूप ले लेती है जब उनके लाडले या लाडली ने गैर धर्म या गैर जाती में शादी की होती है. अभी हाल में अमर उजाला के गाजियाबाद वाले पेज पर एक खबर पढ़ने को मिली जिसमे लिव इन रिलेशनशिप का मामला सामने आया. खबर बताती है की कैसे फतेहपुर की रहने वाली एक लड़की और इलाहाबाद के रहने वाले एक लडके को प्यार हो जाता है और दोनों बिना शादी किये एक साथ रहने को तैयार हो जातें हैं. बाद में स्थिति यह हुई की यहाँ पढाई करने आई लड़की प्रेग्नेंट हो गई और वह अभी भी मैनेजमेंट की अंतिम वर्ष की स्टुडेंट है. लड़का इंजीनियरिंग कर एक कंपनी में काम करने लगा हैं. दोनों शादी भी करना चाहतें हैं, इस शादी के लिए उनके माँ-बाप भी राजी हैं लेकिन वे चाहतें हैं की पहले लड़की गर्भपात करवा लें ताकि समाज के लोगों को यह बात नागवार न गुजरे. कल्पना कीजिये यदि यह शादी बिना गर्भपात कराए हो तो समाज इस चीज को किस नजरियें से देखेगा. उन माँ-बाप के लिए तो पूरा जीवन ही नर्क हो जायेगा जो इनके अभिवावक हैं. क्या तमाम रिश्ते-नातेदार उन्हें शक की नजरों से नहीं देखेंगे. हाँ एक बात और दिलचस्प है इस कहानी में लड़का और लड़की दोनों किसी मेट्रोपोलिटन शहर से नहीं आते. यानि लिव इन रिलेशनशिप की बीमारी अब उच्च आय वर्ग वाले लोगों तक सीमित नहीं रही. यह नयी पीढ़ी के जीने का नया तरीका है. जो तमाम बन्धनों को खुद से अलग कर रहा है.

मेरा बस इतना कहना है की प्रेम या प्रेम विवाह करने में कोई खराबी नहीं है लेकिन कम से कम लाडले और लडलियां को अपने घरवालों को विश्वाश में लेकर कोई कदम उठाना चाहिए. उन्हें कम से कम मानसिक रूप से इतना ताक़तवर बना देना चाहिए ताकि वे समाज की उठने वाली ऊँगली को वापस उलटी दिशा में मोड़ सकें. प्रेम में अंधे लोगों को यह भी देखना चाहिए की जिस लड़के व लड़की के के लिए वे घरबार तक छोड़ रहे है क्या उसका इतना बड़ा योगदान और त्याग है जो माँ-बाप ने उसके लिए किया है.

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

Have अ लुक !

एक लुक के पीछे लोगों की दीवानगी किस कदर हावी रहती है, यह शायद ही किसी को बतलाने की जरूरत है। यह लुक का ही खेल है की मेरा पड़ोसी आए दिन यह ताने मरने से पीछें नही रहता की आपके भवन निर्माण की वजह से मेरे मकान की लुक ख़राब हो रही है। बेचारा इस लुक के चक्कर में इतना बेचैन है की उसे मेरी दिक्कतें दिखाई ही नहीं देतीं । खैर वो भी बेचारा क्या करे जब हमारे फ़िल्म स्टार से लेकर तमाम हस्तियां इस लुक के चक्कर में घनचक्कर हुए जा रही हैं तो वो ऐसा करके कौन सा गुनाह कर रहा है।आज कल लुक कांसिओउस होने का जमाना इसलिए भी है क्योंकि जो चीज दिखती है वही बिकती भी है। इसी का नतीजा है की लड़की वाले आजकल शादियों के लिए ऐसी तस्वीरें भेजने लगे हैं, जिसके ऊपर कैमरे ने कम और कंप्यूटर ने ज्यादा मेहनत की होती है। लड़की का कद कम न दिखे इसके साडी को इस तरह से बांधा जा रहा है की उसकी लम्बाई बिल्कूल छिप जाये। लुक की यह भूख हमारे हमारे फिल्म स्टार्स में ज्यादा देखी जा सकता है जो तरह-तरह के लुक के लिए हमेशा परेशान रहते हैं। उदहारण के तौर पर आप आमिर खान जैसे परफेक्ट ऐक्टर को फिल्म में उनके द्वारा निभाए गए किरदार के रूप में तब तक देख सकतें हैं जब तक की फिल्म पर्दे पर आ नहीं जाती। यह लुक कोन्किऔस्नेस्स का ही नतीजा है की अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार को फ्रेंच कट, शाहरुख़ खान को सिक्स पैक एब्स और शिल्पा शेट्टी को नाक की प्लास्टिक सर्जरी करवानी पड़ी। इस तरह के तमाम उदहारण मैं दे सकता हूँ लेकिन हो सकता है की लम्बी फेहरिस्त की वजह से मेरे ब्लॉग की लुक ख़राब हो जाये। इसलिए मैं भी लुक कोन्स्किऔस होने के कारण ऐसा नहीं कर रहा। लुक चाहे मकान का हो या चेहरे का सभी का ख्याल इसलिए रखना पड़ता है क्योंकि खुली अर्थव्यवस्था में सभी बिकाऊ हैं। सभी का अपना रेट है, इस रेट ने पेट के साइज़ को इतना बढा दिया है कि अपना माल बेचने के लिए लोग दुसरो का नुकसान देखना भूल गए हैं।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

दुःख होगा यदि सिर्फ़ खाना खाकर और रात बिताकर चलते बने

रोज की तरह जब मैं शनिवार को इन्टरनेट पर अपने गृह जनपद बलिया की खबरें पढ़ रहा था, तो एक खबर ने मेरा सबसे ज्यादा ध्यान खींचा , खबर थी की कांग्रेसी नेता गाँधी जी की जयंती पर दलितों के घर ठहरे और उनके यहाँ भोजन भी किया। जब मैं अपने ऑफिस से Night शिफ्ट ख़तम करके घर पहुंचा तो गाजियाबाद के अखबारों में भी यही खबर थी की कांग्रेसियो ने दलित बस्ती में रात बितायी और खाना खाया। मैं रोजाना इन्टरनेट पर बलिया की खबरें देख लेता हूँ, ऐसा इसलिए करता हूँ की पता तो चले की मेरी जन्मभूमि पर आखिर क्या हलचल चल रही है, जन्म से ही दूर रहने के बावजूद भी पता नहीं क्यों इस जिले का मोह मेरे मन से अभी तक नहीं निकला। दूसरी जगह का जो मैने जिक्र किया वो ऐसी जगह है जिसने मुझे रहने के लिए घर, पढ़ने के लिए स्कूल और कुछ समय तक रोजीरोटी के लिए जगह दी। इसलिये मैं इस जिले के प्रति कृतज्ञ हूँ। यहाँ की ख़बरों में भी मेरी काफी रुचि रहती है। अपने दो चहेते जिलो मे एक सी खबरें देखकर मुझे लगा की इस पर अपनी प्रतिक्रिया जरूर व्यक्त करनी चाहिए, क्योंकि मसला दलितों से जुड़ा हुआ है और वो भी उस प्रदेश से जुड़ा हुआ है जहाँ की मुखिया दलित है। वैसे यह खबर सिर्फ दो जिलो तक सिमित नहीं थी। टीवी चैनल्स और अखबारों में प्रदेश के बड़े कांग्रेसी नेताओ को दलितों के घर रूकते हुए और खाना खाते हुए बड़े ही आकर्षक ढंग से दिखाया जा रहा था। यह सब देखने पर दिमाग ने जोर डाला और सोचने पर मजबूर कर दिया की प्रदेश के कांग्रेसी नेताओ को आखिर क्या हो गया जो अचानक ही दलित प्रेमी हो गए। पहले तो इस तरह का आडम्बर नहीं किया जाता था, इस आडम्बर में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी से लेकर तमाम बड़े नेताओ ने भाग लिया। राहुल के दलित के घर रुकने को मीडिया ने बड़ा इवेंट साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं उन्हें दलित प्रेमी भी बताया गया। मेरा बस छोटा सा सवाल है की दलितों को उनके अधिकार दिलाने में जो काम आरक्षण, दलित मुख्यमंत्री और तमाम तरह के लुभावन वायदे नहीं कर सके क्या उस अधिकार को कांग्रेसी भोजन करके और रात घर पर बिताकर दिला सकते है? अगर इसका जवाब हाँ है तो यह काम पहले क्यों नहीं किया गया? क्या कांग्रेसियो को वाकई दलितों से हमदर्दी है या यह सिर्फ दिखावा मात्र है? दूर से देखने पर जो खेल नजर आता है वो यह है की सत्ता में आने के पहले दलितों ने मायावती से जो उम्मीदें लगायी थी वो सिर्फ मृगतृष्णा साबित होकर रह गयीं। कांग्रेसी दलितों के इसी दर्द को भुनाने के लिए यह सब कर रहे हैं। वो यह लालीपॉप देने में जुटे हैं की मायावती ने दलितों को धोखा दिया तो क्या हुआ कांग्रेस उनके लियें सहारा बनेगी। यह सारी रणनीति २०१२ में होने वाले विधानसभा चुनावो के लिए बनायी जा रही है। कांग्रेसी प्रदेश में लोकसभा चुनावो में मिली सफलता से काफी उत्साहित हैं। दलितों का कौन कितना बड़ा हितेषी है इसकी जंग हमेशा राजनितिक दलों में होती रहती है, लेकिन मुझे आजतक यह समझ नहीं आया की आखिर यह जंग मेरे गाँव सीताकुंड (बलिया से १४ किलोमीटर दूर) में रहने वाले दलितों की तकदीर क्यों नही बदल सकी? वो आज भी वैसे हैं जैसे की दस साल पहले थे, मैं आज भी देखता हूँ की उनकी स्थिति दयनीय बनी हुयी है। वो कम संसाधनों की वजह से अपने बच्चो को स्कूल पढने नहीं भेजते। उन्हें यह भी नहीं पता की आरक्षण क्या चीज़ होती है और उसके फायदे क्या है? पूछने पर यह तो बता देते हैं की प्रदेश की मुखिया दलित है लेकिन यह नहीं बता पाते की उनकी मुखिया ने उन्हें दिया क्या है। मेरे ख्याल से कांग्रेसी नेताओ को मेरे गाँव जाकर इनके घर भी ठहरना चाहिए था आखिर उन्हें भी तो पता चलता की आखिर दलितों की सच्चाई क्या है। लेकिन मुझे इस बात का दुःख होता यदि राहुल गाँधी, रीता बहुगुणा, जितिन प्रसाद, श्रीप्रकाश जयसवाल जैसे नेता यहाँ आकर सिर्फ खाना खाकर और रात बिताकर से चलते बनते।

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

आज 2 अक्टूबर है


अभी जब रात के 1 बजकर 3 मीनट हुए हैं, मुझे अचानक याद आया की 1 अक्टूबर बीत चुकी है और आज 2 तारीख हो गयी है। अचानक मुझे यह भी याद आया की आज किसी ऐसे व्यक्ति का जन्मदिन है, जिसे हम लोग अपनी इतिहास की किताबो में पढ़ते थें। हमें पढाया जाता था की भारत को ऐसे व्यक्ति ने आजाद कराया जो कभी झूट नहीं बोलता था। जिसने अपने देश को सत्य और अहिंसा के बल पर ब्रिटिश हकुमत से मुक्त कराया। जो साधारण होतें हुए भी असाधारण था। लोग उसे महात्मा कहते थे और उसके पीछे लोग ऐसे मतवाले थे की उसे राष्ट्र-पिता और बापू भी कह कर संबोधित करते थे। इतिहास की किताबो में महात्मा गाँधी लिखा हुआ मिलता था। इसके साथ यह भी लिखा हुआ मिलता था की उनका बचपन का नाम मोहन दास करम चंद गाँधी था। मेरे ख्याल से इतनी जानकारी काफी है जो यह साबित करती है की तमाम व्यस्तताओ के बावजूद भी भी मैं बापू को नहीं भुला हूँ। हो सकता है की आज के बाद बापू मुझे फिर अगली जयंती पर ही याद आयें ठीक हमारे उन नेताओ की तरह जो 2 अक्टूबर के दिन उनकी समाधी पर पुष्प अर्पित करने के बाद करते हैं।
अभी जब मैं यह ब्लॉग लिख रहा हूँ तो मन में एक स्फूर्ति सी है क्योंकि मन में एक ऐसे व्यक्ति का ख्याल अचानक आ गया जिसे एक दो किताबो में ख़तम नहीं किया जा सकता। गाँधी को समझने के लिए पूरा जीवन कम है। कुछ बातें और याद आ रही हैं इस दिन टीवी पर गाँधी नाम की एक फिल्म भी दिखाई जाती है जिसे रिचर्ड एतेंब्रौग ने बनाया था। पूरी फिल्म देखने के बाद यही लगता था की शरीर पर धोती लपेटे और हाथ में लाठी लिए इस व्यक्ति में ऐसा क्या था जो सभी इसके दीवाने थें।
आज जब सुबह होगी तो फिर से सारे न्यूज़ चैनल गाँधी को याद करेंगे और न जाने TRP बटोरने वाले कौन से प्रोग्राम चलाएंगे या फिर चलाएंगे भी की नहीं क्योंकि गाँधी कोई राखी सावंत, राहुल महाजन, शाहरुख़ खान, धोनी, लालू प्रसाद यादव तो हैं नहीं जो TRP की गंगा बहा दें। इन सब के बीच में शायद गाँधी फिल्म दूरदर्शन पर जरूर दिखयी जायेगी जो नयी पीढी को यह बतलाने में काफी मदद करेगी की कोई साबरमती का संत भी इस देश के गुजरात में पैदा हुआ था। याद दिला दूं की यह वही गुजरात है जहाँ अभी नरेन्द्र मोदी का शासन है, और जिन पर गुजरात में दंगे फैलाने का आरोप हैं। खैर इन सब बातों में क्या रखा हैं। बस इतना याद रखना जरूरी है की आज गाँधी जयंती है और आज जितना मन करे उतना गाँधी जी को याद करे. कल भूल जाने पर कोई कसूर थोड़े ही न होगा क्योंकि ऐसा तो हम भारतीय दशको से करतें आ रहे है।

बुधवार, 16 सितंबर 2009

अजी उत्तर प्रदेश नहीं अस्थिर प्रदेश कहिये


देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश के गाँव नगरो में बैठने वाली चौपालों पर भले ही आम जीवन के दुःख सुख की चर्चा कम रस के साथ हो लेकिन राजनीतिक चर्चा बड़ी गहमागहमी के साथ होती हैं। कभी-कभी यह चर्चा दो या दो से ज्यादा पार्टियों और नेताओ की अच्छाई और बुराई पर होते होते आपसी खेमेबाजी में तब्दील हो जाती हैं. मामला इतना गंभीर हो जाता हैं की कई बार हिंसा तक हो जाती हैं.लेकिन इस बारे में अनुमान लगाना काफी मुश्किल हैं की क्या राजनीतिक रूप से जागरूक रहने वाले लोग इस बात पर चर्चा करतें होंगे की हमारा प्रदेश आज़ादी के बाद से राजनीतिक रूप से काफी अस्थिर रहा हैं?

वर्ष २००७ के विधानसभा चुनाव परिणाम को देखकर लगता है, शायद लोगो ने इस बात पर चर्चा जरूर की होगी तभी तो प्रदेश की जनता ने ऐसा जनादेश दिया जिससे लगने लगा है की मायावती गोविन्द बल्लभ पन्त और सम्पूर्नानादा के बाद अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगी। इससे पहले भी वह तीन बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायीं.

आज़ादी के बाद से प्रदेश में १९ व्यक्तियों ने मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला हैं जिसमें से अब तक सिर्फ गोविन्द बल्लभ पन्त और सम्पूर्णानन्द ही अपना कार्यकाल पूरा कर पायें हैं. ऐसा तब हुआ हैं जब कई बार राजनितिक दलों को पूर्ण बहुमत मिला हैं. किसी मुख्यमंत्री को बीच में हटाने का कारनामा सबसे ज्यादा कांग्रेस पार्टी ने किया हैं. उसने ९ बार बीच में ही मुख्यमंत्री बदल दिया. इस निति को अपनाने में भारतीय जनता पार्टी और जनता पार्टी भी पीछें नही रहीं। वर्ष १९९९ से २००२ के बीच में पार्टी ने ३ मुख्यमंत्रियों को बदल दिया। इस अदला बदली का ही नतीजा हैं की नारायण दत्त तिवारी, चंद्रभानु गुप्ता और मायावती को चार बार मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला। मुलायम सिंह भी अब तक तीन बार गद्दी संभल चुके हैं और अभी भी नारायण दत्त तिवारी, मायावती और चंद्रभानु गुप्ता की कतार में शामिल होने को बेताब हैं। प्रदेश की जनता जरूर यही चाहती होगी की मायावती अपना यह कार्यकाल जरूर पूरा करें ताकि १९८९ से जारी राजनितिक अस्थिरता खत्म हो सके.

रविवार, 6 सितंबर 2009

लो खिंचवा ली फोटो !

लो ब्लॉग की दुनिया में एक और नमूना टपक पड़ा. वैसे मेरा यह ब्लॉग काफी समय पहले आ जाता यदि मैं आलस छोड़ अपनी एक फोटो खिंचा लेता. कमबख्त एक अदद फोटो ने सारा काम बिगाड़ कर रखा था. वो तो भला हो गाजियाबाद के एक फोटो पत्रकार का जिसने जबरदस्ती कर फोटो खिंच डाली और यह ब्लॉग बन सका.वैसे फोटो की बात चल रही हैं तो एक बात मुझे अचानक याद आ गयी. हुआ यह की कुछ दिन पहले शादी के लियें किसी ने मेरी फोटो मांगी थी लेकिन सारी एल्बम और कंप्यूटर के एक-एक फोल्डर को देखने के बाद भी मेरी कोई खास फोटो हाथ न लग सकी. इस पुरे मामले पर मेरे पिता जी को गुस्सा भी आ रहा था, लेकिन वो मेरे पर गुस्सा करने के बजाएं मेरे भाई पर गुस्सा करने लगे. उन्होंने कहा क्या तुम भैया की कोई फोटो नहीं खिंच सकतें. मेरे भाई का जवाब था की कोई यदि फोटो नहीं खिंचवाता तो मेरा कसूर क्या हैं.वैसे फोटो का महत्व मुझें तब समझ में आया जब में गाजियाबाद में चेतन जी के साथ एक अख़बार में काम कर रहा था. वो जिस तरह फोटो का इस्तेमाल करतें थें उसका में कायल हूँ. पेज पर क्या गजब की फोटो लगवातें थें.