मजबूरी आदमी से क्या न कराये. ये मजबूरी ही है जो मुझे अपनी शिफ्ट ख़त्म होने के बाद भी ऑफिस मे रूकना पड़ रहा है. अभी ठीक रात के पौने दो बजे हैं कायदे से तो करीब एक घंटे पहले शिफ्ट ख़त्म करके मुझे घर चले जाना चाहिए था लेकिन और लोगो की तरह मुझे ड्रॉप नहीं मिली और मुझे कोई काम के बिना भी ऑफिस में रुकना पड़ा. ड्रॉप न मिलने का कारण मुझे बताया गया की आपका घर गाज़ियाबाद में पड़ता है उतनी दूर गाड़ी नहीं जा सकती.
कल इसी बात पर मेरी बॉस से भी बात हुई थी उन्होंने भी अपनी मजबूरियों को हवाला दे कर मुझे मजबूर होने के लिए मजबूर किया. वैसे मेरे साथ-साथ वे लोग भी मजबूर होंगे जो इस नाइंसाफी पर सिर्फ कानाफूसी कर के रह गए और अपनी भावनाओं को आवाज़ नहीं दे पाए. दिखावे के लिए मेरे साथ सभी खड़े हैं लेकिन कोई भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं है. शायद वे भी मजबूर होंगे. मैं ज्यादा मजबूर हूँ क्योंकि मैं कोई भी ऐसा कदम नहीं उठा सकता जिससे मैं मुसीबत मे फंस जाऊ.
शनिवार, 27 मार्च 2010
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