शनिवार, 27 मार्च 2010

हाय ये मजबूरी

मजबूरी आदमी से क्या न कराये. ये मजबूरी ही है जो मुझे अपनी शिफ्ट ख़त्म होने के बाद भी ऑफिस मे रूकना पड़ रहा है. अभी ठीक रात के पौने दो बजे हैं कायदे से तो करीब एक घंटे पहले शिफ्ट ख़त्म करके मुझे घर चले जाना चाहिए था लेकिन और लोगो की तरह मुझे ड्रॉप नहीं मिली और मुझे कोई काम के बिना भी ऑफिस में रुकना पड़ा. ड्रॉप न मिलने का कारण मुझे बताया गया की आपका घर गाज़ियाबाद में पड़ता है उतनी दूर गाड़ी नहीं जा सकती.
कल इसी बात पर मेरी बॉस से भी बात हुई थी उन्होंने भी अपनी मजबूरियों को हवाला दे कर मुझे मजबूर होने के लिए मजबूर किया. वैसे मेरे साथ-साथ वे लोग भी मजबूर होंगे जो इस नाइंसाफी पर सिर्फ कानाफूसी कर के रह गए और अपनी भावनाओं को आवाज़ नहीं दे पाए. दिखावे के लिए मेरे साथ सभी खड़े हैं लेकिन कोई भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं है. शायद वे भी मजबूर होंगे. मैं ज्यादा मजबूर हूँ क्योंकि मैं कोई भी ऐसा कदम नहीं उठा सकता जिससे मैं मुसीबत मे फंस जाऊ.

रविवार, 17 जनवरी 2010

फिर जन्म लेना होगा ज्योति दा को



यह समाचार सभी के लिए दुखद है की पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री के रूप में लगातार २३ सालों तक वामपंथी विचारधारा को धार देने वाले ज्योति बसु नहीं रहे. वे जाते-जाते भी यही सीख दे गए की भले ही लड़ाई कितनी ही कठिन क्यों न हो उसे अंतिम समय तक लड़ना चाहियें. ज्योति दा भारतीय राजनीती में ऐसा शून्य छोड़कर गए हैं जिसे भरना आज के राजनेताओ के बस की बात नहीं है. ऐसा लगता है की जब देश और खासतौर से हासिये पर खड़े वामपंथ को ज्योति दा की ज्यादा जरूरत थी तभी वो सभी को छोड़कर चले गए. बंगाल या देश के किसी भी कोने में लेफ्ट की लोकप्रियता में यदि कोई कमी आई है तो उसका सबसे बड़ा कारण ज्योति दा का काफी अरसे से बीमार पड़े रहना भी है.
लेफ्ट के कमजोर होने का ही असर है की हमारी राष्ट्रीय राजनीती में विपक्ष एकदम कमजोर हो गया है, नहीं तो कमरतोड़ महंगाई ने कांग्रेस के लिए अब तक ढेरो मुश्किलें पैदा कर दी होंती. वामपंथियों के पास अब वो धार नहीं बची जिसके बलबूते वे आम आदमी का दिल जीता करतें थे. उनका कोई भी आन्दोलन अब जनता को प्रभावित नहीं करता. ऐसे में आज के समय में ज्योति दा जैसे नेताओ की जरूरत देश और वामपंथ को महसूस हो रही है. आज अगर वो हमारे बीच होते तो वामपंथ की यह हालत नहीं होती और देश में कांग्रेस को महंगाई के मुद्दे पर जवाब देना नहीं नहीं बनता. इसीलिए वामपंथ और देश में गरीबो की आवाज़ बनने के लिए ज्योति दा को फिर जन्म लेना होगा.

ज्योति दा भारतीय राजनीती में एक मिसाल थे, उन्होंने पार्टी की इच्छा का सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री का पद तक छोड़ दिया. हालाँकि उन्होंने बाद में इसे सबसे बड़ी भूल करार दिया. तब यदि वो प्रधानमंत्री बनना स्वीकार कर लेते तो हो सकता था की वामपंथ की स्वीकर्यता देश के कुछ कोनो को छोड़कर बाकि हिस्सों में भी होती. वे जब तक बंगाल के मुख्यमंत्री रहे वहां वामपंथ को अपना सिक्का जमाये रहने में कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन उनके जाने के बाद धीरे-धीरे वामपंथ वहां कमजोर पड़ गया. बुद्धदेब उनकी विरासत को सम्हालने में पूरी तरह नाकाम रहे. उनकी मौत बंगाल की जनता के लिए सदमें से कम नहीं है.

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

भूले अपना ही प्रदेश !


आजकल लगता है बसपा के नेता सत्ता के नशे में इतने चूर हो गए हैं की उन्हें अपने प्रदेश की सीमाओ तक का ज्ञान नहीं रहा. तभी तो आनंद-विहार से बोर्डर पार करने पर वे दिल्ली आगमन के लिए लोगो का अभिनन्दन कर रहे हैं.

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

मायावती की सरकार में बड़ा अत्याचार है !

माँ-बहन की गाली सुनकर आमतौर पर आंखें तरेरने वाले लोग शादी-विवाह के मौके पर एक से बढ़कर एक गालियाँ सुनकर भी सिर्फ दांत दिखाकर कम चला लेते हैं. मैं नहीं समझता की उनके पास इसके अलावा और कोई दूसरा चारा भी होता होगा. कुछ दिन पहले मुझे भी अपने मामा की बिटिया की शादी में कुछ ऐसा ही करना पड़ा. वहां तिलक के मौके पर लड़के वालो के पक्ष से महिलाएं ऐसी गालियाँ दे रहीं थी की कोई भी सभ्य पुरुष अपने कानो को बाद कर ले. न जाने गालियाँ देने की इस प्रथा को किसने शुरू किया होगा. उस दिन घर की महिलाएं किसी को बक्श दें ऐसा संभव ही नहीं हैं. गालियाँ अगर मीठी जुबान में मिलें तो उसकी बात और ही है. बलिया में भोजपुरी भाषा बोली जाती है और इसी भाषा में मिल रही गालियाँ किसी बंगाली मीठाई से कम नहीं थी.


जब हम लोग लड़के वालों के आंगन में खाना खा रहे थे तो खाने का आनंद गालियों के साथ कुछ और ही था. इस बीच किसी महिला ने तान छेड़ा की मायावती की सरकार में बड़ा अत्याचार है अब गली-गली घुमे मुहनोच्वा हाय सियाराम जी  कहीं. यह गाली सुनकर तो मेरे मुंह का निवाला अन्दर ही नहीं गया और जो हाथ में खाने का कँवर था वो भी हाथ में ही रह गया. मेरी समझ में नहीं आया की इन महिलाओं को ससुरा, साला, भडुआ आदि कहतें-कहतें आखिर मायावती क्यों याद आ गयीं.
काफी research के बाद मेरे ख्याल में आया की नेता का नाम आजकल एक गाली हो गयी है और उन्होंने इसीलियें ऐसा किया होगा.


नोट--- अभी-अभी अपने गृह जनपद बलिया से लौटा हूँ इसलियें लिखने के लिए काफी कुछ है. आगे के अंक में कुछ और मजेदार चीजें होंगी.

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

रवीश जी से रेकुएस्ट है लापतागंज देखकर कुछ लिखें


अगर किसी को यह नहीं पता है की सब टीवी पर सोमवार से गुरुवार रात १० बजे लापतागंज आता है तो सभी से आग्रह है की यह सीरियल जरूर देखें. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ की यह दूरदर्शन के पुराने दिनों की याद दिला देगा जब हास्य व्यंग्य से भरपूर धारावाहिक एक सन्देश छोड़ कर जाते थे. यह सन्देश ऐसे होते थे जो अंतर्मन को गुदगुदाने के साथ अंतरात्मा को छकझोर देते थे. कुछ ऐसा ही अंदाज़ है लापतागंज का. सीरियल भी शरद जोशी की कहानियों पर आधारित है तो इसकी खूबियों का पता लगाया जा सकता है.
मैंने अब तक इसके चार एपिसोड देखे हैं. एपिसोड के title है लापतागंज में महापुरुष, लापतागंज में शादी, इल्लिया और नेताजी शर्मिंदा हैं. पहले एपिसोड मे मैंने सीखा की महापुरुष बनने के लियें जरूरी नहीं की कोई खास योग्यता रखनी पड़े. शादी में खर्चा है तभी तो चर्चा है जैसे सामाजिक तंज का मजा लापतागंज में शादी वाले एपिसोड में देखने को मिला. अगर मुकुन्दी बाबु की मेहरारू को शर्मिंदा नेता देखने में आनंद मिला तो मैं भी शर्मिन्दा नेता देखकर खुद शर्मिन्दा होने से नहीं बच पाया. खेतों में इल्लिया हैं तभी तो दिल्ली में बिल्लियाँ हैं जैसी चीज़ भी अन्दर से गुदगुदा गयीं और न्यूज़ चैनेलो से लेकर नेता जी के किसान के प्रति रवैये को समझा कर चली गयी. यह कुछ ऐसी खूबियाँ हैं जो बरबस ही मुझे इस सीरियल की तरफ खिचती हैं.
मेरी सब वालो से एक और रेकुएस्ट है की इस कार्यक्रम की timing change करें क्योंकि इस समय पर ndtv इंडिया पर रवीश कुमार भी न्यूज़ पॉइंट में आ रहे होते हैं जिनके तंज भी काफी रोचक होतें हैं. एक रेकुएस्ट रवीश जी से भी है की वो भी लापतागंज देखे और अपने ब्लॉग में लिखें.

शनिवार, 21 नवंबर 2009

क्या पत्रकारिता loudspeaker हो गयी है ?

"पंकज जी राष्ट्रीय छात्र संगठन का जिला अध्यक्ष बनने पर सभी लोग मुझे बधाई दे रहे हैं, पर न जाने मेरे घर वालों को क्या हो गया है, जो यह कहकर मेरा अपमान कर रहे हैं की मैंने गलत राश्ता चुन लिया है और मेरा जीवन तबाह हो गया है. वे कहते हैं की दिल्ली क्या हमने तुम्हें नेता बनने के लिए भेजा था. पंकज जी उनकी बातें सुनकर मुझे समझ में नहीं आता की आखिर मैंने अपराध क्या किया है. क्या हम जैसे लोगो को नेता नहीं बनना चाहियें. क्या किसी राजनीतिक दल में शामिल होकर समाज सेवा को अपना करियर बनाना गलत है. पंकज जी मैं चाहता हूँ की जो कुछ भी मैंने दिल्ली या अन्य जगह से हासिल किया है उसे पुरनिया (bihar) के लोगो में बांटू. पंकज जी आखिर मैं बड़ा पत्रकार होकर भी क्या करता आखिर मुझे वही लोगो को बतलाना पड़ता जो एक आंठवी पास नेता बयाँ देता. मैं राज ठाकरे की बकबक सुनकर आखिर जनता को क्यों बताऊ की उसने बिहारियो के बारे में क्या कहा है. मैं अपने विचार खुद व्यक्त करना चाहता हूँ और loudspeaker थामना चाहता हूँ न की ऐसा loudspeaker बनना चाहता हूँ जिस पर कोई भी बस बयाँ दे कर चलता बने. पंकज जी ऐसा काम दीपक चौरसिया भी कर रहे हैं, मैं ऐसा नहीं करना चाहता मुझे माफ़ कीजियेगा क्योंकि आप भी मीडिया वाले ही हैं." कुनाल कुमार, पुरनिया, बिहार




यह व्यथा मेरे उस मित्र ने फ़ोन पर व्यक्त की है जो कभी पत्रकारिता की क्लास में बिहार की बुराई करने पर पूरी कक्षा में खड़ा होकर विरोध करता था. उसकी तब और अबकी खासियत है की वह खाता भी राजनीती में है और सोता भी राजनीती में है यानि की इतना राजनीतिक है की इसके अलावा कोई और चीज उसके लिए मिटटी के बराबर है. कुनाल ने मेरे साथ ही पत्रकारिता की पढाई की है और थोड़े दिन उसने मीडिया को अपनी सेवाई भी दीं उसके बाद उसने अपनी रूची के मुताबिक राजनीती को अपना लिया.

कुनाल की सारी बातें सुनने के बाद ऐसा महसूस हुआ की यही सबसे बड़ा कारण है जो अच्छे लोग राजनीती में नहीं आतें. एक माँ-बाप अपने बेटे या बिटिया को डॉक्टर, इंजिनियर और मेनेजर बनाने के सपने तो देखतें है वे इस बात पर भी अफ़सोस व्यक्त कर लेतें है की अच्छे राजनेता अब देश में नहीं रहे, लेकिन जब बात आती है की अपने पढ़े लिखे बेटे को राजनीती में जाने दें तो वे सबसे पहले आपत्ति व्यक्त करतें हैं. यह माँ-बाप के नाखुशी का ही नतीजा है की राजनीती में बदमाशों और कम पढ़े लिखे लोग आ रहे हैं.

पत्रकारिता को louspeker कहने पर मैं अपने दोस्त की तरफ से माफ़ी चाहता हूँ क्योंकि वो जिस भावना में बात कर रहा था उसमें ये बातें जायज हैं.

बुधवार, 4 नवंबर 2009

प्रेम, प्रेमी और माँ-बाप फैसला आप का !



हम आये दिन प्रेम और प्रेम विवाह जैसी खबरों से न्यूज़ चैनल और अखबारों के माध्यम से रूबरू होते हैं. खबरों के माध्यम से जो प्रेम कहानियाँ दिखाई जाती है, उसमे हमेशा प्रेमी जोड़े को हीरो और उनके परिजनों को विलेन दिखाया जाता है, ठीक उन तमाम हिट और फ्लॉप हिंदी फिल्मों की तरह जिसमे विलेन इतना क्रूर होता है की वह जुल्मो की हद पर कर देता है. लेकिन यहाँ तो विलेन उन्हें बनाया जाता है जिन्होंने न जाने कितनी परेशानियों से जूझते हुए अपमी औलाद को पाल पोसकर बड़ा किया होता है. प्रेम विवाह करने के बाद भले ही लड़के और लड़की को सबसे ज्यादा खुशी मिले लेकिन उन माँ बाप का क्या जो जीवन भर समाज के तानो से अपना पीछा मरने के बाद ही छुड़ा पते हैं. इन्ही माँ बाप को हम विलेन की तरह दिखाते हैं और यह साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते की ये प्यार के सबसे बड़े दुश्मन हैं. मेरा सवाल है की यह कैसे हो सकता है की जो माँ-बाप अपने बच्चो के जीवन को बनाने के लिए अपने दिन का चैन और रात की नींद खो दे वही एक दिन उनके दुश्मन कैसे बन जातें हैं? क्या उनको सिर्फ इसलिए विलेन बनाना ठीक है की वे अपने बच्चो के प्रेम-विवाह से नाखुश हैं?

हमारे समाज में सभी माँ-बाप अपने बच्चों से कुछ उम्मीदें रखतें हैं. उनकी यह भी उम्मीद होती है की उनका बेटा या बेटी एक दिन ऐसा काम करेंगे जिससे उनका सर समाज में ऊँचा होगा. लेकिन जब उनका बेटा या बेटी सारी सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर अपनी मर्जी से शादी कर लेता है तो वही सर किसी के आगे बड़ी ही बेशर्मी के साथ खड़ा हो पता है. उनको सबसे ज्यादा डर हमारे समाज से होता है जो जीवन भर उन्हें ताने मारकर तील-तील मरने पर मजबूर कर देता है. यह स्थिति तब और ज्यादा भयानक रूप ले लेती है जब उनके लाडले या लाडली ने गैर धर्म या गैर जाती में शादी की होती है. अभी हाल में अमर उजाला के गाजियाबाद वाले पेज पर एक खबर पढ़ने को मिली जिसमे लिव इन रिलेशनशिप का मामला सामने आया. खबर बताती है की कैसे फतेहपुर की रहने वाली एक लड़की और इलाहाबाद के रहने वाले एक लडके को प्यार हो जाता है और दोनों बिना शादी किये एक साथ रहने को तैयार हो जातें हैं. बाद में स्थिति यह हुई की यहाँ पढाई करने आई लड़की प्रेग्नेंट हो गई और वह अभी भी मैनेजमेंट की अंतिम वर्ष की स्टुडेंट है. लड़का इंजीनियरिंग कर एक कंपनी में काम करने लगा हैं. दोनों शादी भी करना चाहतें हैं, इस शादी के लिए उनके माँ-बाप भी राजी हैं लेकिन वे चाहतें हैं की पहले लड़की गर्भपात करवा लें ताकि समाज के लोगों को यह बात नागवार न गुजरे. कल्पना कीजिये यदि यह शादी बिना गर्भपात कराए हो तो समाज इस चीज को किस नजरियें से देखेगा. उन माँ-बाप के लिए तो पूरा जीवन ही नर्क हो जायेगा जो इनके अभिवावक हैं. क्या तमाम रिश्ते-नातेदार उन्हें शक की नजरों से नहीं देखेंगे. हाँ एक बात और दिलचस्प है इस कहानी में लड़का और लड़की दोनों किसी मेट्रोपोलिटन शहर से नहीं आते. यानि लिव इन रिलेशनशिप की बीमारी अब उच्च आय वर्ग वाले लोगों तक सीमित नहीं रही. यह नयी पीढ़ी के जीने का नया तरीका है. जो तमाम बन्धनों को खुद से अलग कर रहा है.

मेरा बस इतना कहना है की प्रेम या प्रेम विवाह करने में कोई खराबी नहीं है लेकिन कम से कम लाडले और लडलियां को अपने घरवालों को विश्वाश में लेकर कोई कदम उठाना चाहिए. उन्हें कम से कम मानसिक रूप से इतना ताक़तवर बना देना चाहिए ताकि वे समाज की उठने वाली ऊँगली को वापस उलटी दिशा में मोड़ सकें. प्रेम में अंधे लोगों को यह भी देखना चाहिए की जिस लड़के व लड़की के के लिए वे घरबार तक छोड़ रहे है क्या उसका इतना बड़ा योगदान और त्याग है जो माँ-बाप ने उसके लिए किया है.