मजबूरी आदमी से क्या न कराये. ये मजबूरी ही है जो मुझे अपनी शिफ्ट ख़त्म होने के बाद भी ऑफिस मे रूकना पड़ रहा है. अभी ठीक रात के पौने दो बजे हैं कायदे से तो करीब एक घंटे पहले शिफ्ट ख़त्म करके मुझे घर चले जाना चाहिए था लेकिन और लोगो की तरह मुझे ड्रॉप नहीं मिली और मुझे कोई काम के बिना भी ऑफिस में रुकना पड़ा. ड्रॉप न मिलने का कारण मुझे बताया गया की आपका घर गाज़ियाबाद में पड़ता है उतनी दूर गाड़ी नहीं जा सकती.
कल इसी बात पर मेरी बॉस से भी बात हुई थी उन्होंने भी अपनी मजबूरियों को हवाला दे कर मुझे मजबूर होने के लिए मजबूर किया. वैसे मेरे साथ-साथ वे लोग भी मजबूर होंगे जो इस नाइंसाफी पर सिर्फ कानाफूसी कर के रह गए और अपनी भावनाओं को आवाज़ नहीं दे पाए. दिखावे के लिए मेरे साथ सभी खड़े हैं लेकिन कोई भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं है. शायद वे भी मजबूर होंगे. मैं ज्यादा मजबूर हूँ क्योंकि मैं कोई भी ऐसा कदम नहीं उठा सकता जिससे मैं मुसीबत मे फंस जाऊ.
शनिवार, 27 मार्च 2010
रविवार, 17 जनवरी 2010
फिर जन्म लेना होगा ज्योति दा को
लेफ्ट के कमजोर होने का ही असर है की हमारी राष्ट्रीय राजनीती में विपक्ष एकदम कमजोर हो गया है, नहीं तो कमरतोड़ महंगाई ने कांग्रेस के लिए अब तक ढेरो मुश्किलें पैदा कर दी होंती. वामपंथियों के पास अब वो धार नहीं बची जिसके बलबूते वे आम आदमी का दिल जीता करतें थे. उनका कोई भी आन्दोलन अब जनता को प्रभावित नहीं करता. ऐसे में आज के समय में ज्योति दा जैसे नेताओ की जरूरत देश और वामपंथ को महसूस हो रही है. आज अगर वो हमारे बीच होते तो वामपंथ की यह हालत नहीं होती और देश में कांग्रेस को महंगाई के मुद्दे पर जवाब देना नहीं नहीं बनता. इसीलिए वामपंथ और देश में गरीबो की आवाज़ बनने के लिए ज्योति दा को फिर जन्म लेना होगा.
गुरुवार, 7 जनवरी 2010
भूले अपना ही प्रदेश !
आजकल लगता है बसपा के नेता सत्ता के नशे में इतने चूर हो गए हैं की उन्हें अपने प्रदेश की सीमाओ तक का ज्ञान नहीं रहा. तभी तो आनंद-विहार से बोर्डर पार करने पर वे दिल्ली आगमन के लिए लोगो का अभिनन्दन कर रहे हैं.
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