रविवार, 17 जनवरी 2010

फिर जन्म लेना होगा ज्योति दा को



यह समाचार सभी के लिए दुखद है की पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री के रूप में लगातार २३ सालों तक वामपंथी विचारधारा को धार देने वाले ज्योति बसु नहीं रहे. वे जाते-जाते भी यही सीख दे गए की भले ही लड़ाई कितनी ही कठिन क्यों न हो उसे अंतिम समय तक लड़ना चाहियें. ज्योति दा भारतीय राजनीती में ऐसा शून्य छोड़कर गए हैं जिसे भरना आज के राजनेताओ के बस की बात नहीं है. ऐसा लगता है की जब देश और खासतौर से हासिये पर खड़े वामपंथ को ज्योति दा की ज्यादा जरूरत थी तभी वो सभी को छोड़कर चले गए. बंगाल या देश के किसी भी कोने में लेफ्ट की लोकप्रियता में यदि कोई कमी आई है तो उसका सबसे बड़ा कारण ज्योति दा का काफी अरसे से बीमार पड़े रहना भी है.
लेफ्ट के कमजोर होने का ही असर है की हमारी राष्ट्रीय राजनीती में विपक्ष एकदम कमजोर हो गया है, नहीं तो कमरतोड़ महंगाई ने कांग्रेस के लिए अब तक ढेरो मुश्किलें पैदा कर दी होंती. वामपंथियों के पास अब वो धार नहीं बची जिसके बलबूते वे आम आदमी का दिल जीता करतें थे. उनका कोई भी आन्दोलन अब जनता को प्रभावित नहीं करता. ऐसे में आज के समय में ज्योति दा जैसे नेताओ की जरूरत देश और वामपंथ को महसूस हो रही है. आज अगर वो हमारे बीच होते तो वामपंथ की यह हालत नहीं होती और देश में कांग्रेस को महंगाई के मुद्दे पर जवाब देना नहीं नहीं बनता. इसीलिए वामपंथ और देश में गरीबो की आवाज़ बनने के लिए ज्योति दा को फिर जन्म लेना होगा.

ज्योति दा भारतीय राजनीती में एक मिसाल थे, उन्होंने पार्टी की इच्छा का सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री का पद तक छोड़ दिया. हालाँकि उन्होंने बाद में इसे सबसे बड़ी भूल करार दिया. तब यदि वो प्रधानमंत्री बनना स्वीकार कर लेते तो हो सकता था की वामपंथ की स्वीकर्यता देश के कुछ कोनो को छोड़कर बाकि हिस्सों में भी होती. वे जब तक बंगाल के मुख्यमंत्री रहे वहां वामपंथ को अपना सिक्का जमाये रहने में कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन उनके जाने के बाद धीरे-धीरे वामपंथ वहां कमजोर पड़ गया. बुद्धदेब उनकी विरासत को सम्हालने में पूरी तरह नाकाम रहे. उनकी मौत बंगाल की जनता के लिए सदमें से कम नहीं है.

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